Wednesday 9 November 2011

सांड


सांड

देखा  है कभी ,
सड़क पर  ,
मटरगश्ती  करता  हुआ  सांड ,
मानो  गोश्त  का  पहाड़ ,
सफ़ेद झक्क चमड़ी ,
इतनी सफ़ेद  ,,गोरी ,,की ,
हाँथ  लगते  मैले  हो ,

काम न  धाम  ,
दिन - रात  आराम ,
बाज़ार  को  रौंदता ,
जितना  खाता   है ,,
उससे  कहीं  अधिक 
बर्बाद  करता  है ,,फेंकता   है ,

सारे  कायदों  को  तोड़कर ,
जब  कभी  भी अड़  जाता ,
बीच  सड़क  पर ,
ट्रेफिक  पूलिस  तक ,
उसी  के  सुभीते  से ,
हाँथ  दिखाता  है ,

आने - जाने  वाले  हर शख्स ,
झुककर उसे हाँथ भले न जोड़े,
पर उतर जायेगा,
सायकिल से,

गुस्ताखी उसे कतई बर्दाश्त नहीं ,
कई बच्चों-बूढों को ,
सींगों पर उछालकर,
वह बेरहमी से पटक चुका है ,
कुचल चुका है ,


किसी नई गाय के पीछे उसे ,
 लार टपकाते हुए ,
कभी भी देख सकते हैं,

सड़क पर जिस वक़्त मास्टरनी,
जब कुछ पैसों के लिए झिक झिक ,
कर रही हो किसी फेरी वाले से,
वो कही से आ जाता ,
मुंह मार देगा ताज़ी सब्जियों  पर ,
बिना भाव पूछे,

'इश्वर का अवतार '
-दोस्त कहता है-
'सांड़ो  की नस्ल ही
अलग होती है '

ऐसी की तैसी
तुम्हारी नस्ल की,
फाँद दो बैलगाड़ी में स्साले को,
घुसाद जाएगी साड़ी हेकड़ी,
जो जोतना पड़े खेत,
चार दिन,
पिघल जाएगी साड़ी चर्बी,
उभर आएँगी तमाम हड्डियाँ ,   

1 comment:

  1. अच्छा चित्रण कविता दृश्य को उकेरने में सक्षम.

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