Wednesday 9 November 2011

जंगल और शहर

जंगल और शहर 

जंगल के   बीच,
बस के इंतज़ार में,
निपट अकेला मैं,
साथ कोई नहीं,
बस  सिर्फ पेड़ ही पेड़,
सड़क के,
इधर और उधर ,
बोरियत में एक शगल सूझी,
पूछा पास के बूढ़े पेड़ से,
 " क्यों कभी देखा है तुने शहर ???"
फ़ोन ,टी.व़ी , ऐ.सी. ,एल. सी. ड़ी. , फ्रिज ,
गिना डाले मैंने नाम तमाम ,
उन चीजों के ,
जो मैंने भी देखी हैं ,
सिर्फ दूसरों के पास.......,

बूढ़ा पेड़ भौचक ठगा सा ,
बाकी भी सन्न,
"तुम सभी सारी ज़िन्दगी रहोगे ,
जंगल के जंगल,
बौनों के देश में लगा की ,
मैं गुलिवर हूँ ,
की तभी दूर से आती ,
जीप को रोकता ,
मैं सतर्क हुआ,
अनदेखा कर मुझे ,
जो चली गयी,
धूल उडाती हुई,
यह चौथी गाडी थी,
नहीं ड़ी लिफ्ट जिसने मुझे....

छोटे- बड़े पेड़ तमाम,
 खड़े झूमते,
हँसते,,,हो ,,,,,हो,,,हो,,मुझपर ,

इस तरह बेपर्दा हुआ,
मैं शहरी बाबू,
फिर एक बार,
 

 

 

1 comment:

  1. ये शहर कुछ और नहीं .. पत्थरों का जंगल ही है..
    कुछ पत्थर, इंसानों की तरह है.. तो कुछ इन्सान पत्थर की तरह .


    अच्छी कविता है.. और लिखिए..

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