Thursday 10 November 2011

दफ्तर में चिड़िया

दफ्तर में चिड़िया

दफ्तर  में  फाइलों  की  सर-  सराहट,
और  टाइप  की    खट   - खट
के  बावजूद
दफ्तर  का  सा सन्नाटा
दफ्तर  में  गश्त  करती  
साहेब  की  एक  जोड़ी  आँखें
चुभ  रही  हर  एक  की  डेस्क  पर

दूर  सड़क  पर  से  आती  
'इन्कलाब    जिंदाबाद '
को  अनसुना  कर 
बाबू  लोग  
सरका  रहे  हैं  फ़ाइलें

पुरानी  फाइलों  के  बीच  में 
चिड़िया  का  घर
बहार  से  अभी  अभी  लौटी
चिड़िया  चहचहाती  है
अपने  चिड़िया   बच्चों  को
बाहर  का  हाल  सुनाती    है ,
बताती  है ,
सुनना  चाहते  है
बाबू  लोग  भी
पर  साहेब  का  डर   ,

दफ्तर  में  एक  दम  सन्नाटा ,
खट  -खट  और  सर सराहट   भी   चुप ,
गूंजती  है  केवल  'चह -चह  ',
घोर  अनुशाशन - हीनता ,!
रूल  से  भी  नहीं ,
डरती  है  चिड़िया ,
साहेब  की  'हिश -हिश '
से  भी  बेपरवाह ,

चिड़िया  खूब  पदोती  है ,
खिसिया  जाते  है  साहेब  भी ,
बाबू  लोग ,
मुंह  छुपा  कर  हँसते  हैं ,

जुलुस  की  आवाज़ 
खिडकियों  के  कांच  तोड़कर ,
घुस  आती  है  दफ्तर  में ,
'फुर्रर्रर्र ,,,,,,र ,,र ,S,S'
दफ्तर  से  बाहर ,
चिड़िया  भी  शामिल  हो  जाती  है 
जुलुस  में ,
तमाम  बाबू  लोग  
खिडकियों  से  देखते  हैं ,
जुलुस  को  जाते  हुए ,

Wednesday 9 November 2011

सांड


सांड

देखा  है कभी ,
सड़क पर  ,
मटरगश्ती  करता  हुआ  सांड ,
मानो  गोश्त  का  पहाड़ ,
सफ़ेद झक्क चमड़ी ,
इतनी सफ़ेद  ,,गोरी ,,की ,
हाँथ  लगते  मैले  हो ,

काम न  धाम  ,
दिन - रात  आराम ,
बाज़ार  को  रौंदता ,
जितना  खाता   है ,,
उससे  कहीं  अधिक 
बर्बाद  करता  है ,,फेंकता   है ,

सारे  कायदों  को  तोड़कर ,
जब  कभी  भी अड़  जाता ,
बीच  सड़क  पर ,
ट्रेफिक  पूलिस  तक ,
उसी  के  सुभीते  से ,
हाँथ  दिखाता  है ,

आने - जाने  वाले  हर शख्स ,
झुककर उसे हाँथ भले न जोड़े,
पर उतर जायेगा,
सायकिल से,

गुस्ताखी उसे कतई बर्दाश्त नहीं ,
कई बच्चों-बूढों को ,
सींगों पर उछालकर,
वह बेरहमी से पटक चुका है ,
कुचल चुका है ,


किसी नई गाय के पीछे उसे ,
 लार टपकाते हुए ,
कभी भी देख सकते हैं,

सड़क पर जिस वक़्त मास्टरनी,
जब कुछ पैसों के लिए झिक झिक ,
कर रही हो किसी फेरी वाले से,
वो कही से आ जाता ,
मुंह मार देगा ताज़ी सब्जियों  पर ,
बिना भाव पूछे,

'इश्वर का अवतार '
-दोस्त कहता है-
'सांड़ो  की नस्ल ही
अलग होती है '

ऐसी की तैसी
तुम्हारी नस्ल की,
फाँद दो बैलगाड़ी में स्साले को,
घुसाद जाएगी साड़ी हेकड़ी,
जो जोतना पड़े खेत,
चार दिन,
पिघल जाएगी साड़ी चर्बी,
उभर आएँगी तमाम हड्डियाँ ,   

जंगल और शहर

जंगल और शहर 

जंगल के   बीच,
बस के इंतज़ार में,
निपट अकेला मैं,
साथ कोई नहीं,
बस  सिर्फ पेड़ ही पेड़,
सड़क के,
इधर और उधर ,
बोरियत में एक शगल सूझी,
पूछा पास के बूढ़े पेड़ से,
 " क्यों कभी देखा है तुने शहर ???"
फ़ोन ,टी.व़ी , ऐ.सी. ,एल. सी. ड़ी. , फ्रिज ,
गिना डाले मैंने नाम तमाम ,
उन चीजों के ,
जो मैंने भी देखी हैं ,
सिर्फ दूसरों के पास.......,

बूढ़ा पेड़ भौचक ठगा सा ,
बाकी भी सन्न,
"तुम सभी सारी ज़िन्दगी रहोगे ,
जंगल के जंगल,
बौनों के देश में लगा की ,
मैं गुलिवर हूँ ,
की तभी दूर से आती ,
जीप को रोकता ,
मैं सतर्क हुआ,
अनदेखा कर मुझे ,
जो चली गयी,
धूल उडाती हुई,
यह चौथी गाडी थी,
नहीं ड़ी लिफ्ट जिसने मुझे....

छोटे- बड़े पेड़ तमाम,
 खड़े झूमते,
हँसते,,,हो ,,,,,हो,,,हो,,मुझपर ,

इस तरह बेपर्दा हुआ,
मैं शहरी बाबू,
फिर एक बार,
 

 

 

बिजूका

बिजूका
खेत के बीचों बीच,
बरसों से खड़ा ,
बिजूका बेडौल,
विकराल उसका डील - डौल,

हँडियो   का उसका सिर काला,
 चुने से आँख, मुँह   ,नाक - कान;
बांस की कमचिल  के,
पैर हाँथ उसके,
हाँथ में ,
एक और कमचिल की छड़ी,

बूढ़े पक्षी ,चिड़िया, कौवा,
आदि के लिए,
बिजूका नहीं हौवा;
 
खेत के आकाश में ,
उनका उड़ना वर्जित,
कल परसों या,
कुछ ही दिनों पहले,
जन्मीं चिड़ियाँ दो- चार,
छोटीं सबकी सब नन्हीं ,
बहुत ही कम ऊँची,
उनकी उड़ान;

सारा सारा दिन,
खेत में चुगतीं दाने,
कभी बैठ जाती कंधो पर,
या चोंच से ठुनकती  ,
काला गंजा सिर ,

जुलूस

 जुलूस

चौराहे पर भीड़ -भाड़,
भागम-भाग,
अलग-अलग,
लेकिन,
एक जैसे लगते लोगों का समूह ;

मानो घिसटता कोई ,
ठूंठ का जंगल,
जिधर से आता हुआ ,
उधर ही जाता हुआ रेला जैसे;

ट्रेफिक पुलिस के,
इशारे पर,
एक दुसरे के विपरीत,
आड़ी या खड़ी,
दो सामानांतर रेखाएं,
बनते हुए ,
ढेरों- ढेर बिंदु;

चल पड़े झुण्ड के झुण्ड,
बायीं ओर कहीं ,
दूर कहीं टिकीं हैं ,
उन सबकी नज़रें,

हत्प्रध ट्रेफिक पुलिस ठगा सा,
रुका ही रह गया,
उन्हें रोकता हुआ हाँथ उसका,

चलता हुआ जैसे जंगल,
सिर्फ हरा ही हरा दीखता है; 



पहाड़ और गाँव

पहाड़ की ....
नर्म हरी गोद में ठुनकता ,
इठलाता सा गाँव है ;
गाँव के सिर पर ,
छाते सा पहाड़ तना है ;
जितना दिखता है उतना ही ,
नहीं भी दिखता है पहाड़ ;

गाँव की रगों में ,
दौड़ता है पहाड़ ;
चूल्हे में सुलगता ,
चूल्हे पर की देगची में ,
खदबदाता है पहाड़ ;

बैदजी के खलबटटे में ,
संजीवनी बन पिसता है पहाड़ ;
हंसिये की धार ,
हल की फाल में ,
चमकता है पहाड़ ;

गर्ज़ यह की पहाड़ गाँव से
कतई अलग नहीं है ,

जंगल और गाँव के बीच ,
लक्ष्मण रेखा सा ,
पहाड़ पसरा है ;
गाँव निश्चिन्त है ,
गाँव की नींद पर ,
पहाड़ का पहरा है ;

पहाड़

पहाड़ की पथरीली भुजाओ में दुबका,
सहमा हुआ सा गाँव था :

पहाड़ की, पहाड़ की सी काया थी,
गाँव पर,
... पहाड़ की छाया थी;

हर गली के मुहाने पर,
होठों में जीभ फेरता
पहाड़ खड़ा था;

किसान के पेट में ,
पहाड़ की सी भूख थी,
बच्चे की फटी-फटी आँखों में,
पहाड़ की सी सुबक थी;

टूटे छप्परों की सुराखों से,
झांकता था पहाड़,
हाँफते गाँव की छाती पर,
सवार था पहाड़,

रात को पहाड़ का न दिखना,
पहाड़ के न होने जैसा था,
पर सुबह,,तालाब के हरे जल में,
उल्टा टंगा,
हाथों से लाल रंग छुड़ाता,
दिखता था पहाड़;

दुपहर पहाड़ के शिखर से देखा,
पहाड़ कहीं नहीं था,
पैरों के नीचे ,
जैसे मारा हुआ शेर कोई;

गाँव था,
नवजात चूजों की तरह सुगबुगाता,
और हरियाली थी,
 चारों तरफ फैली हुई;

बाम्हन चिरई

बाम्हन चिरई

छोटी सी मेरी बाम्हन चिरई
कितनी छोटी, फुर्तीली इतनी,
कि झट.पट टूंग लेती
पेट भर,,,,,
भात के सिथे दाने बिखरे
... फुदकती नाचती
पीढे के चौतरफ
ठीक तेरी ही तरह
मेरी प्यारी बेटी
तेरी दो ऊँगलियों की चुटकी
चििङया की चोंच से
कितनी मिलती जुलती है
जब भी मैं
थाली में बचा
भात़ .दाल. साग और एकाध मिर्च
सुवे के पिंजरे में
रख रहा होता हूं
प्यारी बेटी
तू इस तरह क्यूं देखती है
मुझे