Wednesday 9 November 2011

पहाड़ और गाँव

पहाड़ की ....
नर्म हरी गोद में ठुनकता ,
इठलाता सा गाँव है ;
गाँव के सिर पर ,
छाते सा पहाड़ तना है ;
जितना दिखता है उतना ही ,
नहीं भी दिखता है पहाड़ ;

गाँव की रगों में ,
दौड़ता है पहाड़ ;
चूल्हे में सुलगता ,
चूल्हे पर की देगची में ,
खदबदाता है पहाड़ ;

बैदजी के खलबटटे में ,
संजीवनी बन पिसता है पहाड़ ;
हंसिये की धार ,
हल की फाल में ,
चमकता है पहाड़ ;

गर्ज़ यह की पहाड़ गाँव से
कतई अलग नहीं है ,

जंगल और गाँव के बीच ,
लक्ष्मण रेखा सा ,
पहाड़ पसरा है ;
गाँव निश्चिन्त है ,
गाँव की नींद पर ,
पहाड़ का पहरा है ;

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