सांड
देखा है कभी ,
सड़क पर ,
मटरगश्ती करता हुआ सांड ,
मानो गोश्त का पहाड़ ,
सफ़ेद झक्क चमड़ी ,
इतनी सफ़ेद ,,गोरी ,,की ,
हाँथ लगते मैले हो ,
काम न धाम ,
दिन - रात आराम ,
बाज़ार को रौंदता ,
जितना खाता है ,,
उससे कहीं अधिक
बर्बाद करता है ,,फेंकता है ,
सारे कायदों को तोड़कर ,
जब कभी भी अड़ जाता ,
बीच सड़क पर ,
ट्रेफिक पूलिस तक ,
उसी के सुभीते से ,
हाँथ दिखाता है ,
आने - जाने वाले हर शख्स ,
झुककर उसे हाँथ भले न जोड़े,
पर उतर जायेगा,
सायकिल से,
गुस्ताखी उसे कतई बर्दाश्त नहीं ,
कई बच्चों-बूढों को ,
सींगों पर उछालकर,
वह बेरहमी से पटक चुका है ,
कुचल चुका है ,
किसी नई गाय के पीछे उसे ,
लार टपकाते हुए ,
कभी भी देख सकते हैं,
सड़क पर जिस वक़्त मास्टरनी,
जब कुछ पैसों के लिए झिक झिक ,
कर रही हो किसी फेरी वाले से,
वो कही से आ जाता ,
मुंह मार देगा ताज़ी सब्जियों पर ,
बिना भाव पूछे,
'इश्वर का अवतार '
-दोस्त कहता है-
'सांड़ो की नस्ल ही
अलग होती है '
ऐसी की तैसी
तुम्हारी नस्ल की,
फाँद दो बैलगाड़ी में स्साले को,
घुसाद जाएगी साड़ी हेकड़ी,
जो जोतना पड़े खेत,
चार दिन,
पिघल जाएगी साड़ी चर्बी,
उभर आएँगी तमाम हड्डियाँ ,
सड़क पर जिस वक़्त मास्टरनी,
जब कुछ पैसों के लिए झिक झिक ,
कर रही हो किसी फेरी वाले से,
वो कही से आ जाता ,
मुंह मार देगा ताज़ी सब्जियों पर ,
बिना भाव पूछे,
'इश्वर का अवतार '
-दोस्त कहता है-
'सांड़ो की नस्ल ही
अलग होती है '
ऐसी की तैसी
तुम्हारी नस्ल की,
फाँद दो बैलगाड़ी में स्साले को,
घुसाद जाएगी साड़ी हेकड़ी,
जो जोतना पड़े खेत,
चार दिन,
पिघल जाएगी साड़ी चर्बी,
उभर आएँगी तमाम हड्डियाँ ,
अच्छा चित्रण कविता दृश्य को उकेरने में सक्षम.
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