Saturday 15 December 2012
gam agar shamile hayat nahiN..
Apne Ustaad ki DuaoN ki tufaill.... ahle-bazm ki baseeratoN ke hawale...
IK GAZAL ... IK KOSHISH ...
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hath meN tere mera hath nahiN
jab nahiN too, to kaaynaat nahiN...
ab bhi too too hai or meN meN hoon
phir bhi pehla sa iltifaat nahiN...
khwab mere bhi ho gaye murda
teri aaNkhoN meN bhi hayat nahiN...
sochti hooN kabhi kabhi yuN bhi
kyuN wo pehle se din-o-raat nahiN...
dostoN ki muhabbatoN ke sabab...
uljhanon se mujhe nijaat nahiN...
manti hoon tujhi ko ab bhi khuda..
tujh se badhkar to meri zaat nahin...
hai ajab uljhanoN men har rishta
baat to ye hai koi baat nahiN...
pyar to khud hi ek mazhab hai...
pyar ki koi zaat -paat nahiN....
zaat to bas khuda ki hai pagal ...
aadmi ki to koi zaat nahiN....
zindagi ki har ik khushi be kaif
gum agar shamile hayat nahiN...
ab "mahek" ye samajh meN aaya hai...
maut ke samne hayat nahiN...
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Avani Asmita Sharma -mahek
Tuesday 11 December 2012
वज़्न
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उर्दू शायरी में सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व होता है अक्षर का वज़्न ... हर शब्द का एक निश्चित वज़्न होता है.... जिसे ग़ज़ल के हर मिसरे (( लाइन )) में सही शब्द रखना होता है....
वज़्न की गणना हम उसके उच्चारण के द्वारा करते हैं .... और उच्चारण के आधार पे इन्हें 2 स्तम्भ में बाँट लेते हैं ....
१..लघु शब्द ...
२.. गुरु शब्द ....
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१. लघु शब्द
लघु शब्द वो होते हैं जिन्हें उच्चारण में हम सिर्फ एक बार में कह लें ....
जैसे -- क .. च ... म .... प ... र... ल... य.... अ... भ.... इत्यादि...
और सभी छोटी इ और छोटे उ की मात्र वाले शब्द ...
जैसे-- दि... दु .. मि ... कि ....
ग़ज़ल के मात्रिक चाँद में इन शब्दों को 1 गिना जाता है....
२.. गुरु शब्द
गुरु शब्द वो शब्द होते हैं जिनके उच्चारण में हम बड़ी मात्रायें लगाते हैं ...
जैसे - ई .... क़ी ... फी .... जी.... कू .. रू ... तू.... गो ... को... जो....इत्यादि...
Thursday 6 December 2012
एक लघुकथा
मुफ्त
घर में कदम रखते ही उसकी नज़र अस्त-व्यस्त पड़े हुए कमरे पे पड़ी .... सामन इधर -उधर ऐसे बिखरे थे जैसे कोई भूचाल आया हो... लेकिन रोज़ का यही मंज़र उसे ये एहसास था की कोई भूचाल नहीं ये तो उसके बच्चों की शरारत है ... और रोज़ होती
है ...
दिन भर स्कूल में सर-खपाई करो ... और घर आओ तो ये सब ... .टूटे हुए सामान देखकर आज उसका गुस्सा
चरम पे था... दोनों बच्चों के गालों पे ज़ोर की चपत लगाईं ... ""मुफ्त में
नहीं आते सामान .. इसके पैसे लगते हैं ...."""
भाव -- ""बच्चे शायद मुफ्त आते हैं''
भाव -- ""बच्चे शायद मुफ्त आते हैं''
2..
बारिश
बारिश का मौसम उसे बहुत पसंद था... सच तो यही है की साल के सभी महीनो में बारिश से उसे खासा लगाव था.... बुढ़ापे में तो बारिश उसे और भी पसंद आने लगी... जन्म का साल तो उसे मालूम नहीं था... और याद रखता भी कौन... लेकिन उसे अपनी उम्र कुछ 60 के आस पास लगती थी... अब हाथ पैर का दर्द और साँस का फूलना भी इसी तरफ इशारा करते की उसकी उम्र हो गयी है....
लेकिन रोज़ी-रोटी के लिए काम तो करना ही होता है न... खाली पेट काम कैसे चले ... फिर घरवाली ... उसकी भी तो ज़िम्मेदारी है ...बाल-बच्चे भी सब कमाने निकले तो वापस न लौटे ...अब तो यही 2 प्राणी रह गए...
वैसे वो स्कूल के बच्चों को लाने -छोड़ने का काम करता ... इस उम्र में ज्यादा वज़न उठाना भी तो मुश्किल होता ,....इसीलिए रिक्शा लेकर सिर्फ स्कूली बच्चे लाने -ले जाने का काम कर लेता .... गुज़र -बसर के लायक पैसे मिल जाते.....
लेकिन बारिश का अपना मज़ा था... सवारी से जितना भाव कहो ... वो मना नहीं करती... और दिन में 2 -3 सवारी से ही उसे अच्छी आमदनी हो जाती....
सो वो स्कूल का काम निपटा ... निकल पड़ता सवारी खोजने .... सोचा इस बार 2 महीने में जो भी कमी करेगा ...उसे अपने आखिरी समय के लिए रखेगा ... अब उसकी और पत्नी की सेहत ठीक नहीं रहती....
पूरे बारिश उसने बहुत मेहनत की....पैसे भी अच्छे बनाये.... लेकिन बारिश में भीग भीग कर उसे बुख़ार रहने लगा ... फिर भी वो काम करता रहा...
जब ज्यादा तबियत ख़राब हुई तो घरवाली बड़े अस्पताल ले गयी... डॉ . ने कोई बड़ी बीमारी बताई ... और कहा इलाज़ में बहुत खर्च आएगा ....
शायद निमोनिया ....
3..
माँ
""जो करना है आज ही कर लेते हैं ... किसी को शक भी नहीं होगा ..""
घर से निकलते हुए पत्नी के कहे हुए ये शब्द उसके ज़ेहन में बार बार आते रहे... लेकिन पत्नी के लिए कहना जितना आसन था... खुद उसके लिए ये करना उतना ही मुश्किल...
बड़ा ही सुन्दर बचपन था उसका... माँ .. पिताजी ... और दो भाई... हँसता खेलता परिवार ... माँ -पिताजी ने उनको अच्छा बचपन और अच्छा भविष्य देने में कोई कसार नहीं छोड़ी थी... और उसी के फल स्वरूप आज वो दोनों भाई अपने अपने क्षेत्र में एक सफल जीवन व्यतीत कर रहे थे...
भाई पढ़-लिख कर आज अमरीका में नौकरी कर रहा था... और वो खुद भारत के एक महानगर में अच्छी खासी तनख्वाह वाली नौकरी में था... पिता की मृत्यु को 10 साल गुज़र गए थे .. अब माँ का क्या ....
माँ ने विदेश जाने से साफ़ मन कर दिया .. भला बुढ़ापे में कहाँ वो नए देश नयी संस्कृति से सामंजस्य करती ... सो माँ की जवाबदारी उसपर आ गयी .... उसे कोई शिकायत नहीं थी... लेकिन पत्नी ... उसे तो ज़िम्मेदारी का पहाड़ लगता ... हर वक़्त कोसती ... और हिसाब -किताब करती ... हमने कितनी ज़िम्मेदारी निभाई ...और बड़े भाई ने कितनी ज़िम्मेदारी ....
लेकिन जब से माँ बीमार हुई ... तब से उसका ये प्रलाप और बढ़ गया ... "" जब बेटे दो हैं तो क्यूँ अकेले हम ये ज़िम्मेदारी उठायें "" तुम्हारे भाई को भी तो माँ की चिंता होनी चाहिए ...""
मैं भैया की मजबूरी समझता भी था ... लेकिन स्वाभाविक है की पत्नी का विरोध नहीं कर पाता था.... और ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे... इधर माँ की सेहत पिछले महीने से बहुत गिर गयी... और हॉस्पिटल .. दवा.. सेवा ... सभी बढ़ गए ...
अब पत्नी के दीमाग में खुराफात आने लगी... खर्च भी बचेगा ... और सेवा का टंटा भी टलेगा ... चुप चाप एकाध दवा माँ की इधर -उधर कर दो... वैसे ही बीमार हैं ... किसको क्या पता चलेगा ..... लोग सोचेंगे बीमारी में गुज़र गयी...
करना तो यही चाहिए था ... लेकिन मैं नादान पता नहीं कैसे पत्नी की बात में आ गया...सोचा की चलो इस बहाने रोज़ की ये खिट -पिट तो ख़त्म हो ...
इक रात हिम्मत कर के माँ के कमरे में गया ... कमरे में अँधेरा था... माँ शायद गहरी नींद में थी... बिना आह्ट के मैं माँ के बिस्तर की तरफ बढ़ रहा था... तभी माँ ने कहा -"" बबलू बहुत बेचैनी हुई... उलटी करने का जी किया ... कोई था नहीं .. इसीलिए यहीं नीचे कर ली...तुम लाइट जला लो .. कहीं पैर पड़ गया और फिसल गए तो चोट लग जाएगी..."""
और माँ के शब्द सुन कर वो सन्न रह गया ....
बारिश
बारिश का मौसम उसे बहुत पसंद था... सच तो यही है की साल के सभी महीनो में बारिश से उसे खासा लगाव था.... बुढ़ापे में तो बारिश उसे और भी पसंद आने लगी... जन्म का साल तो उसे मालूम नहीं था... और याद रखता भी कौन... लेकिन उसे अपनी उम्र कुछ 60 के आस पास लगती थी... अब हाथ पैर का दर्द और साँस का फूलना भी इसी तरफ इशारा करते की उसकी उम्र हो गयी है....
लेकिन रोज़ी-रोटी के लिए काम तो करना ही होता है न... खाली पेट काम कैसे चले ... फिर घरवाली ... उसकी भी तो ज़िम्मेदारी है ...बाल-बच्चे भी सब कमाने निकले तो वापस न लौटे ...अब तो यही 2 प्राणी रह गए...
वैसे वो स्कूल के बच्चों को लाने -छोड़ने का काम करता ... इस उम्र में ज्यादा वज़न उठाना भी तो मुश्किल होता ,....इसीलिए रिक्शा लेकर सिर्फ स्कूली बच्चे लाने -ले जाने का काम कर लेता .... गुज़र -बसर के लायक पैसे मिल जाते.....
लेकिन बारिश का अपना मज़ा था... सवारी से जितना भाव कहो ... वो मना नहीं करती... और दिन में 2 -3 सवारी से ही उसे अच्छी आमदनी हो जाती....
सो वो स्कूल का काम निपटा ... निकल पड़ता सवारी खोजने .... सोचा इस बार 2 महीने में जो भी कमी करेगा ...उसे अपने आखिरी समय के लिए रखेगा ... अब उसकी और पत्नी की सेहत ठीक नहीं रहती....
पूरे बारिश उसने बहुत मेहनत की....पैसे भी अच्छे बनाये.... लेकिन बारिश में भीग भीग कर उसे बुख़ार रहने लगा ... फिर भी वो काम करता रहा...
जब ज्यादा तबियत ख़राब हुई तो घरवाली बड़े अस्पताल ले गयी... डॉ . ने कोई बड़ी बीमारी बताई ... और कहा इलाज़ में बहुत खर्च आएगा ....
शायद निमोनिया ....
3..
माँ
""जो करना है आज ही कर लेते हैं ... किसी को शक भी नहीं होगा ..""
घर से निकलते हुए पत्नी के कहे हुए ये शब्द उसके ज़ेहन में बार बार आते रहे... लेकिन पत्नी के लिए कहना जितना आसन था... खुद उसके लिए ये करना उतना ही मुश्किल...
बड़ा ही सुन्दर बचपन था उसका... माँ .. पिताजी ... और दो भाई... हँसता खेलता परिवार ... माँ -पिताजी ने उनको अच्छा बचपन और अच्छा भविष्य देने में कोई कसार नहीं छोड़ी थी... और उसी के फल स्वरूप आज वो दोनों भाई अपने अपने क्षेत्र में एक सफल जीवन व्यतीत कर रहे थे...
भाई पढ़-लिख कर आज अमरीका में नौकरी कर रहा था... और वो खुद भारत के एक महानगर में अच्छी खासी तनख्वाह वाली नौकरी में था... पिता की मृत्यु को 10 साल गुज़र गए थे .. अब माँ का क्या ....
माँ ने विदेश जाने से साफ़ मन कर दिया .. भला बुढ़ापे में कहाँ वो नए देश नयी संस्कृति से सामंजस्य करती ... सो माँ की जवाबदारी उसपर आ गयी .... उसे कोई शिकायत नहीं थी... लेकिन पत्नी ... उसे तो ज़िम्मेदारी का पहाड़ लगता ... हर वक़्त कोसती ... और हिसाब -किताब करती ... हमने कितनी ज़िम्मेदारी निभाई ...और बड़े भाई ने कितनी ज़िम्मेदारी ....
लेकिन जब से माँ बीमार हुई ... तब से उसका ये प्रलाप और बढ़ गया ... "" जब बेटे दो हैं तो क्यूँ अकेले हम ये ज़िम्मेदारी उठायें "" तुम्हारे भाई को भी तो माँ की चिंता होनी चाहिए ...""
मैं भैया की मजबूरी समझता भी था ... लेकिन स्वाभाविक है की पत्नी का विरोध नहीं कर पाता था.... और ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे... इधर माँ की सेहत पिछले महीने से बहुत गिर गयी... और हॉस्पिटल .. दवा.. सेवा ... सभी बढ़ गए ...
अब पत्नी के दीमाग में खुराफात आने लगी... खर्च भी बचेगा ... और सेवा का टंटा भी टलेगा ... चुप चाप एकाध दवा माँ की इधर -उधर कर दो... वैसे ही बीमार हैं ... किसको क्या पता चलेगा ..... लोग सोचेंगे बीमारी में गुज़र गयी...
करना तो यही चाहिए था ... लेकिन मैं नादान पता नहीं कैसे पत्नी की बात में आ गया...सोचा की चलो इस बहाने रोज़ की ये खिट -पिट तो ख़त्म हो ...
इक रात हिम्मत कर के माँ के कमरे में गया ... कमरे में अँधेरा था... माँ शायद गहरी नींद में थी... बिना आह्ट के मैं माँ के बिस्तर की तरफ बढ़ रहा था... तभी माँ ने कहा -"" बबलू बहुत बेचैनी हुई... उलटी करने का जी किया ... कोई था नहीं .. इसीलिए यहीं नीचे कर ली...तुम लाइट जला लो .. कहीं पैर पड़ गया और फिसल गए तो चोट लग जाएगी..."""
और माँ के शब्द सुन कर वो सन्न रह गया ....